सोमवार, 16 मई 2011

भारतीय खेलों के गौरव – प्रकाश पादुकोण


मॉडल से अभिनेत्री बनीं आज की चोटी की सिने तारिका – दीपिका पादुकोण का नाम तो लगभग सभी जानते हैं लेकिन उनके प्रशंसकों को मैं यह बताना चाहता हूँ कि उनके पिता प्रकाश पादुकोण उनसे कई गुणा अधिक सफल एवम् चर्चित रहे हैं । आज से तीन दशक पहले प्रकाश पादुकोण का नाम भारत के हर खेल-प्रेमी की जुबान पर हुआ करता था ।

१९५५ में कर्नाटक के एक बैडमिंटन-प्रेमी परिवार में जन्मे प्रकाश को खेल का वातावरण बचपन से ही मिला । जब बालक प्रकाश ने खिलाड़ी बनने का निर्णय लिया तो उसे टेनिस खेलने की सलाह देने वाले कई लोग मिले जिन्होंने उससे कहा कि टेनिस में तो बड़े-बड़े इनाम होते हैं, खिलाड़ी एक मुक़ाबले में ही बन जाता है वग़ैरह । पर प्रकाश के मन में जो बात थी वो यह थी कि दो ही तो खेल हैं जिनमें एशिया का बोलबाला है – हॉकी और बैडमिंटन । अतः उन्होंने बैडमिंटन को अपनाने का निर्णय लिया ।
 
प्रकाश ने बैडमिंटन की दुनिया में किशोरावस्था से ही अपना नाम चमकाना शुरू कर दिया मात्र चौदह वर्ष की आयु में ही अपनी धुन का पक्का यह बालक देश का जूनियर नंबर एक खिलाड़ी बन गया १९७१ में मात्र सोलह वर्ष की आयु में राष्ट्रीय बैडमिंटन प्रतियोगिता में पहले प्रकाश ने जूनियर ख़िताब जीता और दो दिन बाद ही फ़ाइनल में देश के धुरंधर खिलाड़ी देवेन्द्र आहूजा को हराकर सीनियर ख़िताब भी जीत लिया. यह पहला अवसर था जब किसी खिलाड़ी ने जूनियर और सीनियर दोनों ख़िताब एक साथ जीत लिए हों । उसके बाद तो राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतने का सिलसिला ही चल पड़ा । एक-दो-तीन बार नहीं, पूरे नौ बार लगातार राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतकर प्रकाश ने रिकॉर्ड कायम किया । प्रकाश का यह रिकॉर्ड आज तक भी नहीं टूटा है

राष्ट्रीय स्तर पर अपना दबदबा कायम कर लेने के बाद प्रकाश ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व करना आरम्भ किया यद्यपि वे १९७४ में तेहरान (ईरान) में हुए एशियाई खेलों में कांस्य पदक विजेता भारतीय दल के सदस्य रहे, तथापि शुरूआती कुछ सालों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सफलता सीमित ही रही और विश्व के नामचीन खिलाड़ियों में उनकी गिनती नहीं हुई । १९७८ में एडमंटन (कनाडा) में हुए राष्ट्रकुल खेलों में बैडमिंटन के एकल मुकाबलों के फ़ाइनल में इंग्लैंड के डेरेक टालबोट को हराकर प्रकाश ने भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता प्रकाश की इस स्वर्णिम सफलता पर देश में ख़ुशी की सी लहर दौड़ी कि भारतीय संसद में लड्डू बांटे गए यह प्रकाश की सफलता का ही प्रेरक प्रभाव था कि चार साल बाद ब्रिसबेन (ऑस्ट्रेलिया) में हुए राष्ट्रकुल खेलों में प्रकाश की अनुपस्थिति में सैयद मोदी ने भी इस स्वर्णिम सफलता को दोहराकर दिखा दिया

प्रकाश के खेल का जादू अब बैडमिंटन-प्रेमियों के सर चढ़कर बोलने लगा १९७९ में इंग्लैंड में हुई निंग ऑव चैंपियंस में विश्व के नामी बैडमिंटन खिलाड़ी इकट्ठे हुए दुनिया के श्रेष्ठ खिलाड़ियों की उपस्थिति में प्रकाश ने उसमें विजेता होने का गौरव पाया इस जीत के बाद प्रकाश को बैडमिंटन का विश्व चैम्पियन घोषित किया गया और तब भारतीय खेल जगत को यह एहसास हुआ कि प्रकाश के रूप में संसार में भारत का नाम रोशन करने वाला एक असाधारण खिलाड़ी सामने आया है
प्रकाश के खेल-जीवन का चरम मार्च १९८० में आया जब उन्होंने केवल दो सप्ताह के भीतर स्वीडिश ओपन, डेनिश ओपन और ऑल इंग्लैंड जैसी तीन बड़ी प्रतियोगिताएं लगातार जीतकर अपने खेल का डंका सारी दुनिया में बजा दिया इनमें से तीसरी सफलता सबसे बड़ी और सबसे महत्त्वपूर्ण थी बैडमिंटन में ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता का वही स्थान है जो कि टेनिस में विम्बलड का है इस प्रतिष्ठित ख़िताब को जीतना भारतीय खिलाडियों के लिए सदा से एक सपना ही रहा था १९७८ और १९७९ में इस प्रतियोगिता को जीतने वाले इंडोनेशिया के खिलाड़ी  लिम स्वी किंग को लगातार तीसरे वर्ष भी ख़िताब का प्रबल दावेदार माना जा रहा था प्रकाश ने हदियांतो, स्वेन प्री और मॉर्टन फ्रॉस्ट जैसे खिलाड़ियों को हराकर फ़ाइनल में किंग से भिड़ंत तय की तो विशेषज्ञों ने किंग की ख़िताबी तिकड़ी को सुनिश्चित मान लिया लेकिन जब प्रकाश ने किंग को सीधे गेमों में १५-३ १५-१० से हराकर इस प्रतिष्ठित ट्रॉफी पर कब्ज़ा कर लिया तो विशेषज्ञों के मुँह खुले-के-खुले रह गए ऑल इंग्लैंड ट्रॉफी को लेकर भारत लौटने वाले प्रकाश का हवाई अड्डे पर भव्य स्वागत किया गया भाव-विह्वल देशवासियों ने प्रकाश को फूलमालाओं से लाद दिया । 


इसके दो माह बाद जकार्ता (इंडोनेशिया) में हुई अधिकृत विश्व चैम्पियनशिप में प्रकाश को शीर्ष वरीयता दी गई । इंडोनेशिया की गर्मी को न सह पाए प्रकाश क्वार्टर फ़ाइनल में ही हदियांतो से हार गए तो इंडोनेशिया के अखबारों ने शोर मचाया कि प्रकाश की किंग पर जीत एक तुक्का थी । पर इससे अपने देशवासियों के मन में प्रकाश का मान कम नहीं हुआ और प्रकाश ने अपने मनोबल को लगातार ऊँचा बनाये रखा ।

१९८१ में जापान ओपन खेलकर भारत लौटने के बाद राष्ट्रीय प्रतियोगिता में लगातार नौ ख़िताबी जीतों के बाद दसवें साल प्रकाश को फ़ाइनल में सैयद मोदी के हाथों पराजय मिली । मार्च १९८१ में अपने ख़िताब की रक्षा के लिए ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता में उतरे प्रकाश को छठी वरीयता दी गई । एक चैम्पियन को छठी वरीयता देना उसकी तौहीन थी । लेकिन प्रकाश ने अपने शानदार प्रदर्शन से निचली वरीयता देने वाले आयोजकों को क़रारा जवाब दिया और फ़ाइनल तक जा पहुँचे जहाँ एक बार फिर उनका मुक़ाबला किंग से हुआ । लेकिन इस बार किंग ने पिछले वर्ष की पराजय का हिसाब चुकाते ङुए प्रकाश को हरा दिया ।

बहरहाल प्रकाश की क़ामयाबियों का क़ाबिल-ए-दाद सफ़रनामा १९८१ में भी जारी रहा । उन्होंने भारत में पहली बार आयोजित अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता इंडियन मास्टर्स बैडमिंटन चैंपियनशिप चीन के हान जियान को हराकर जीती । १९८१ में ही कुआलालम्पुर में पहली बार बैडमिंटन का विश्व कप आयोजित हुआ । प्रकाश ने फ़ाइनल में जियान को ही हराते हुए विश्व कप को भारत की झोली में डाल दिया । 

१९८२ में प्रकाश ने हांग कांग ओपन और डच ओपन ख़िताब जीते । प्रकाश पर पेशेवर होने का आरोप लगाकर उन्हें नई दिल्ली में आयोजित एशियाई खेलों में भारत की ओर से नहीं खेलने दिया गया । अपने ही देश में आयोजित खेल महाकुंभ में अपने देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाना प्रकाश के लिए काफ़ी दुखद रहा । पर उन्होंने अपने मनोबल को गिरने नहीं दिया और ग़ैर-खिलाड़ी कप्तान के रूप में भारतीय बैडमिंटन दल का नेतृत्व करते हुए पाँच कांस्य पदक भारत की झोली में डलवाए । 

प्रकाश के घुटने के ऑपरेशन ने उनके खेल पर विपरीत प्रभाव डाला । १९८२ के बाद कोई बड़ा ख़िताब उन्होंने नहीं जीता लेकिन वे सदा विश्व के शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ियों में शामिल रहे और लगभग सभी बड़ी प्रतियोगिताओं के क्वार्टर फ़ाइनल, सेमी फ़ाइनल या फ़ाइनल तक पहुँचना उनके लिए सामान्य बात रही । १९८६ में एशियाई खेलों के नियमों में ढील देते हुए प्रकाश को खेलने की अनुमति दी गई । तब तक प्रकाश की आयु ३१ वर्ष की हो चुका थी और प्रतिस्पर्द्धी खेल के हिसाब से वे युवा नहीं रहे थे । इसके बावज़ूद भारत और चीन के बीच हुए दलगत मुक़ाबले में प्रकाश ने १९८५ के ऑल इंग्लैंड चैम्पियन और अपने से दस वर्ष छोटे झाओ जियान हुआ को इतनी सहजता से हराया कि खिलाड़ियों, प्रशिक्षकों तथा विशेषज्ञों सभी ने दाँतों तले उंगली दबा ली ।
 
भारत में विश्व-स्तर के खिलाड़ियों की कमी के कारण भारत अक्सर बैडमिंटन की दलगत स्पर्द्धा की सबसे बड़ी प्रतियोगिता – थॉमस कप के क्षेत्रीय मुक़ाबलों में ही बाहर हो जाया करता था । लेकिन १९८८ में प्रकाश ने अपनी ढलती आयु के बावजूद शानदार प्रदर्शन करते हुए भारत को थॉमस कप के अन्तिम दौर में पहुँचाया । मूल रूप से एकल के खिलाड़ी प्रकाश ने इस बार उदय पवार के साथ जोड़ी बनाकर युगल मुक़ाबले भी खेले तथा अनेक महत्वपूर्ण एकल एवं युगल मुक़ाबले जीतते हुए भारत को अन्तिम दौर में पहुँचाकर ही दम लिया । 

प्रकाश के आगमन से पूर्व भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी दमखम और फ़िटनेस की कमी के कारण अन्य देशों के खिलाड़ियों का सामना नहीं कर पाते थे । प्रकाश ने ही फ़िटनेस को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए अन्य खिलाड़ियों को सही मार्ग दिखलाया । प्रकाश की खेल तकनीक़, चुस्ती-फुरती और खेल के प्रति समर्पण ने ही भारत में बैडमिंटन के प्रति लोगों की धारणा भी बदली तथा पहली बार भारतीयों को लगा कि बैडमिंटन नाजुक कलाई का खेल नहीं, रफ़्तार और दमखम का कमाल है ।
 
अपने करियर के दौरान प्रकाश को डेनमार्क की नागरिकता लेकर कोपेनहेगन में बस जाने का अवसर मिला जिसको अपनाकर वे अपार धन कमा सकते थे । लेकिन अपने देश से प्यार करने वाले प्रकाश ने धन के प्रलोभन में आकर अपना वतन छोड़ने की जगह भारत में ही रहकर खेल के उत्थान के लिए काम करने का निश्चय किया ।

आज तो ख़ैर खिलाड़ियों का विज्ञापनों में मॉडल बनकर धन कमाना एक आम बात है, उस ज़माने में भी प्रसिद्ध खिलाड़ी अपनी लोकप्रियता को भुनाते हुए विज्ञापनों के द्वारा धन कमाया करते थे । परंतु प्रकाश ने सदा अपनी एक गरिमा बनाये रखी तथा विज्ञापनों से दूर रहकर केवल खेल पर अपना ध्यान केन्द्रित किया । लेकिन जब देश की एकता और अखंडता का प्रश्न आया तो विभिन्न खेलों के खिलाड़ियों को लेकर राष्ट्रीय एकता को प्रोत्साहन देने के निमित्त दूरदर्शन द्वारा बनाये गए वृत्तचित्र में प्रकाश ने भी काम किया ।

प्रकाश की सफलता में उनकी अर्द्धांगिनी और दीपिका की माँ उजला की प्रेरणा भी महत्वपूर्ण रही है । उजला करकल से प्रकाश की मँगनी बहुत पहले ही हो गई थी लेकिन उन्होंने विवाह तब तक नहीं किया जब तक कि उन्होंने खिलाड़ी के रूप में अपने करियर के चरम को नहीं छू लिया । दीपिका भी पहले बैडमिंटन खेला करती थीं लेकिन प्रकाश और उजला ने अपनी इच्छाओं को उन पर थोपा नहीं और मॉडलिंग तथा अभिनय की ओर उनके रूझान को पहचानकर आधुनिक माता-पिता होने का परिचय देते हुए उन्हें अपने करियर की दिशा बदलने में पूरा सहयोग दिया ।

जुलाई १९८८ में भारत के दूसरे नंबर के बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की अचानक हत्या हो गई । मोदी के इस असामयिक देहावसान ने प्रकाश को मानसिक आघात पहुँचाया । फिर उनका प्रतिस्पर्द्धात्मक स्तर पर खेलने का मन नहीं हुआ तथा खिलाड़ी के रुप में उन्होंने खेल को अलविदा कह दिया । उसके बाद उन्होंने अपना ध्यान युवा बैडमिंटन खिलाड़ियों को मार्गदर्शन और प्रशिक्षण देने की ओर लगाया । उन्होंने दूरदर्शन के लिए एक कार्यक्रम - शटल टाइम विद प्रकाश पादुकोण भी बनाया जिसमें वे स्वयं खेल की बारीक़ियाँ बताया करते थे ।

लगभग सभी भारतीय खेलों की तरह बैडमिंटन भी खेल संघ की राजनीति से अछूता नहीं रहा । खेल संघ की गंदी राजनीति के चलते युवा प्रतिभाओं को कुंठित किए जाने से प्रकाश व्यथित रहा करते थे । आख़िर प्रकाश ने देश में बैडमिंटन की दशा सुधारने का बीड़ा उठाते हुए भारतीय बैडमिंटन संघ (बीएआई) की समानान्तर संस्था - भारतीय बैडमिंटन परिसंघ (आईबीसी) बनाई । यह प्रकाश की लोकप्रियता और खेल के प्रति उनके समर्पण का ही परिणाम था कि आनन-फ़ानन में अनेक राज्यों की बैडमिंटन इकाइयों ने उन्हें समर्थन देते हुए उनकी संस्था से नाता जोड़ लिया । आख़िर भारतीय बैडमिंटन संघ को झुकते हुए प्रकाश से समझौता करना पड़ा । संघ का पुनर्गठन हुआ तथा प्रकाश उसके कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए । प्रकाश ने अपने पद पर निष्ठापूर्वक कार्य करते हुए भारतीय प्रतिभाओं को तराशा । २००१ में पुल्लेला गोपीचंद ने ऑल इंग्लैंड प्रतियोगिता जीतकर इक्कीस वर्ष बाद यह प्रतिष्ठित ट्रॉफ़ी फिर से भारत पहुँचाई । बाद के वर्षों में भी अपर्णा पोपट, अनूप श्रीधर, अरविंद भट्ट, ज्वाला गुट्टा, वी. डीजू और सायना नेहवाल जैसे खिलाड़ियों ने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बैडमिंटन में भारत का परचम बुलंद रखा ।

आज अपनी आयु के छठे दशक में भी भारतीय खेलों के आकाश का यह जगमगाता सितारा उत्साह और ऊर्जा से परिपूर्ण है । प्रकाश की पुत्री दीपिका का नाम मनोरंजन जगत में चमक रहा है लेकिन दीपिका के पिता का नाम भारतीय खेलों के इतिहास में इतने गहरे और सुनहरे अक्षरों में लिखा गया है कि उसका मिटना तो दूर धुंधलाना भी संभव नहीं है । गर्व है ऐसे प्रकाश पर ।

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